देखें कि आपके पैरों की नीचे जमीन तो है - ओशो

ओशो
मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य और दुर्भाग्य एक ही बात में है और वह यह कि मनुष्य को जन्म के साथ कोई सुनिश्चित स्वभाव नहीं मिला। मनुष्य को छोड़ कर इस पृथ्वी पर सारे पशु, सारे पक्षी, सारे पौधे एक निश्चित स्वभाव को लेकर पैदा होते हैं। लेकिन मनुष्य बिलकुल अनिश्चित तरल और लिक्विड है। वह कैसा भी हो सकता है। उसे कैसा भी ढाला जा सकता है।
यह सौभाग्य है, क्योंकि यह स्वतंत्रता है। लेकिन यह दुर्भाग्य भी है क्योंकि मनुष्य को खुद स्वयं को निर्मित करना होता है। हम किसी कुत्ते को यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो।
मनुष्य भूल कर सकता है। क्योंकि मनुष्य विकास करने की संभावना लिए हुए है। मनुष्य को स्वयं को निर्माण करना होता है, बाकी सारी जातियां, पशुओं की, पक्षियों की निर्मित ही पैदा होती हैं। मनुष्य को खुद अपने को ढालना और निर्माण करना होता है। इसलिए दुनिया में हजारों तरह की सभ्यताएं विकसित हुई हैं।
हमने यह कोशिश की कि हम आदमी को परमात्मा की शक्ल में ढालेंगे। हमने यह कोशिश की कि हम आदमी को पृथ्वी पर भला रहे वह, लेकिन उसकी आंखें सदा स्वर्ग पर लगी रहेंगी। हमने यह कोशिश की कि हम रहेंगे पृथ्वी पर, लेकिन सोचेंगे स्वर्ग की। हम पृथ्वी की तरफ देखेंगे भी नहीं। यह बड़ी दुस्साहसपूर्ण कोशिश थी। बड़ी असंभव चेष्टा थी। असफल हम हुए, बुरी तरह असफल हुए।
वह समाज युवा है, जो सदा दूसरा प्रयोग करने की क्षमता फिर से जुटा ले। वह समाज बूढ़ा हो जाता है, जो एक ही प्रयोग में झुक जाए। क्या हम एक ही प्रयोग में चुक गए हैं या हम नया प्रयोग कर सकेंगे? भारत के युवकों के सामने आने वाले भविष्य में यही सवाल है कि क्या हम एक प्रयोग करके हमारी जीवन ऊर्जा समाप्त हो गई है? या हम मनुष्य को बदलने का, नया बनाने का दूसरा प्रयोग भी कर सकते हैं।
पांच हजार वर्ष से हम एक ही प्रयोग के साथ बंधे हैं। हमने उसमें हेर-फेर नहीं किया। हमने बदलाहट नहीं की। लेकिन अब उस प्रयोग के साथ आगे जाना असंभव हो गया है। तो पहले तो हम उस प्रयोग के संबंध में थोड़ा समझ लें जो हमने किया था और जो असफल हुआ।
मंदिर हम देखते हैं। मंदिर में आकाश की तरफ उठे हुए स्वर्ण के कलश होते हैं। मन हो सकता है किसी कवि का, किसी स्वप्नशील का, किसी कल्पना आविष्ट का कि हम एक ऐसा मंदिर बनाएं जिसमें सिर्फ कलश ही हों, स्वर्ण के चमकते हुए, आकाश की तरफ उठे हुए, सूरज की किरणों में नाचते हुए, हंसते हुए--हम सिर्फ स्वर्ण के कलश ही बनाएं। हम गंदी नींव न बनाएंगे। क्योंकि गंदी नींव गंदी जमीन में गड़ी होती है।
अंधेरे में छिपी होती है, सूर्य से डरती है, अंधेरे से प्रेम करती है। कूड़े में, करकट में नीचे दबी रहती है। हम नींव न बनाएंगे, हम गंदी, कुरूप नींव नहीं बनाएंगे, हम तो सिर्फ स्वर्ण के शिखर बनाएंगे। हम दीवालें न बनाएंगे, पत्थर की, मिट्टी की। हम तो सिर्फ स्वर्ण के शिखर ऊपर चमकते हुए बनाएंगे।
हम एक ऐसा मंदिर बनाएंगे जो सिर्फ स्वर्ण-कलशों का मंदिर हो। यह कल्पना तो अच्छी है, काव्य भी अच्छा है। लेकिन यह जिंदगी में सफल नहीं हो सकता। क्योंकि वे जो स्वर्ण के शिखर दिखाई पड़ते हैं ऊपर मंदिर के, स्वर्ण के कलश, वे उस गंदी नींव पर ही खड़े हैं जो नीचे जमीन में दबी है। अगर नींव को हम भूल गए तो स्वर्ण-कलश गिरेंगे, बुरी तरह गिरेंगे, और आकाश में खड़े न रहेंगे; वहां गिर जाएंगे, जहां गंदी नींव होती है।
भारत ने जिंदगी को इसी भांति ढालने की कोशिश की, कलश की जिंदगी बनानी चाही, नींव को इनकार कर दिया। जिंदगी की नींव है भौतिक, जिंदगी की नींव है मैटीरियलिस्ट, जिंदगी की नींव है पदार्थ में और जिंदगी के शिखर हैं परमात्मा में। हमने कहा, हम पदार्थ को इनकार करेंगे, हम भौतिकवादी नहीं हैं, हम शुद्ध अध्यात्मवादी हैं। हम तो सिर्फ अध्यात्म के कलशों में ही जीएंगे, हम आकाश की तरफ उन्मुख होंगे, पृथ्वी की तरफ नहीं देखेंगे।
सुंदर था सपना। लेकिन सुंदर सपने कितने ही हों, सत्य नहीं हो पाते हैं। सिर्फ सपने का सुंदर होना सत्य के होने के लिए पर्याप्त नहीं है। मैंने सुना है, यूनान में एक बहुत बड़ा ज्योतिषी था। वह एक सांझ निकल रहा है रास्ते से। आकाश के तारों को देखता हुआ और एक कुएं में गिर पड़ा है क्योंकि जो आकाश के तारों में जिसकी नजर लगी हो उसे जमीन के गड्ढे दिखाई पड़ते हैं। वह एक गड्ढे में गिर पड़ा है, एक सूखे कुएं में।
हड्डियां टूट गई हैं, चिल्लाता है। पास के झोंपड़े से एक बूढ़ी औरत उसे बमुश्किल निकाल पाती है। निकलते ही वह उस बूढ़ी औरत को कहता है कि मां, शायद तुझे पता नहीं कि मैं कौन हूं। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं। संभवत: मुझसे ज्यादा आकाश के तारों के संबंध में आज पृथ्वी पर कोई भी नहीं जानता है। अगर तुझे कभी आकाश के तारों के संबंध में कुछ जानना हो तो मेरे पास आना। दूसरे लोग तो आते हैं तो हजारों रुपये फीस देनी पड़ती है, तुझे मैं ऐसे ही सब समझा दूंगा।
उस बूढ़ी औरत ने कहा: बेटे, तुम फिकर मत करो, मैं कभी न आऊंगी। क्योंकि जिसे अभी जमीन के गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते, उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा नहीं।
ठीक उसी तरह हमने जमीन को इनकार ही कर दिया था। हमने यह कह ही दिया, यहां सब माया है, सब झूठ है, यह सब पदार्थ, यह पदार्थ का जगत सब असत्य है। सत्य तो कहीं और है, जो दिखाई नहीं पड़ता। जो दिखाई पड़ता है वह असत्य है, और जो दिखाई नहीं पड़ता है वह सत्य है। ऐसा शीर्षासन करने की हमने कोशिश की है। ऐसे हम उलटे खड़े होने की चेष्टा में बुरी तरह गिरे हैं।
मैं यह नहीं कहता हूं कि आकाश में तारे नहीं हैं। वे जरूर हैं, लेकिन वे भी उन्हीं के देखने के लिए हैं जिनकी जमीन सुनिश्चित हो गई हो और रास्ते बन गए हों और जहां गड्ढे न रह गए हों। आकाश के तारे देखने का हक उन्हें है जिन्होंने जमीन के गड्ढे मिटा लिए हों। आकाश के तारों को देखने की क्षमता और पात्रता उन्हीं की हो सकती है जिनके पैर इतने मजबूत हो गए हों कि अब नीचे गिरने का कोई डर नहीं।